Sunday, June 26, 2011

कितना कुछ


मन इतने बरस बीते 
देखते तेरा बहाव
बाढ़-उफान 
घटाव-चढ़ाव
यहाँ  जमे पत्थरो ने
सहे जाने कितने घाव
उनकी भस्म रेत पर
स्वच्छता में     
जाने कितने ही 
धो कर चले गए
अपने मैले-कुचैले पाँव 
बाँध, अपनी-अपनी गठरी
कुछ फेंक गए
पूजा के फूल 
और कुछ अपने पापों के 
जोड़े गए
तमामो शूल ,
जेठ की तपती दुपहरी
दे गयी धूल के अंगार ,
कई बार कतरे गए
सफ़ेद पंख मर गए
बगैर छोड़े अपने
कोई भी निशाँ
लालची हारी निगाहें 
छोड़ गयी अपने 
लोभ-क्षोभ के भाव,
कितना कुछ - कितना कुछ मन 
असीम सीमाहीन
देखा नहीं कहीं कभी तुझमे
एक बिंदुमात्र भी ठहराव !!
 

                           *** हेमा ***






   









Post Comment

No comments:

Post a Comment