Tuesday, June 5, 2012

एक हस्ताक्षर ... गूँगी दुनियाँ के उस छोर पर ...



सत्ताईस नवम्बर उन्नीस सौ तिहत्तर की एक बेहद अँधेरी रात में मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में कार्यरत नर्स 'अरुणा रामचन्द्र शानबॉग' पर उसी अस्पताल के एक अस्थाई सफाई कर्मचारी 'सोहन लाल भरथिया वाल्मीकि' द्वारा हमला किया गया ....उसके मुँह में अस्पताल की प्रयोगशाला के कुत्तों को बाँधने वाली चेन ठूँस दी . अरुणा शानबॉग के साथ अप्राकृतिक दुराचार  किया गया . पिछले सैतीस वर्षों से अरुणा रामचंद्र शानबॉग उसी अस्पताल के एक बिस्तर की स्थाई निवासी है ...अस्पताल के ही स्टाफ की पारिवारिक देखभाल में, लगभग मृतप्राय 'Permanent Vegitative State' में है ...
उसका अक्षम्य अपराध एक बेईमान एवं चोर पुरुष पर आवाज और उंगली उठाना भर था ....

यह दो लिंक हैं जो उनके बारे में पूरी जानकारी उपलब्ध कराते  ... कृपया इन्हें देखने के बाद ही कवितायें पढ़े ... ये अनुरोध उस एक जीवन के पूरे त्रास में  उगी हुई जिजीविषा को देख पाने के लिए भी  है...


 



-१ -

चोरियों और बेईमान
नीयतों पर उठती तुम्हारी
प्रतिबद्ध, धर्मनिष्ठ, कर्मनिष्ठ
अबोध पागल तर्जनी की
आँख और अंधी किस्मत की
लकीरों को , पता ही नहीं था
किसी के काले अँधेरे सीने में
उगते फुफकारते विषदन्तों का ....
-२ -

एक स्त्री का
अपनी संवेगों से भरी
सधी रज्जु पर
सीधे तन कर खड़े होना
दंडनीय है
सधापन जाग्रत कर देता है
‘उनके’ तहखानों में
क्रूर 'गोधराई' अट्टहास ,
नहीं जानती थी ना तुम ...
उनकी प्रचंड इच्छाओं की
तनी हुई नुकीली बर्छियां
तुम्हे मारना कहाँ चाहती हैं  ...
वो करती हैं  छिद्रान्वेषण
कील आसनों पर
तुम्हारी देह और आत्मा का ...
नहीं ही जानती थी तुम ...
कि देवालयों में बहुत ऊँचे टाँगे गये
छिद्रित मटकों से
बूँद दर बूँद टपकता है
तुम्हारा ही तो रक्तप्राण ...
जो करता है -
और-और संपुष्ट और संवर्द्धित
उनके अनंत पुरा स्थापित
लिंग बोध के दावानल को
जाने कितनी ही योनियों तक ...
होता है रुद्राभिषेकित
हर कोने की सड़ांध पर
कुकुरमुत्तों से उग आने को
अपनी बजबजाती गलीज
रक्तबीजी पीकों से
तुम्हे सान ही डालने को ...
नहीं ही जानती थी तुम ...
कि कीचको की आधारशिलाओं पर
सर उठा इतराते है
मृत पथराये
स्वर्णिम कँवल शिखर
नहीं ही जानती थी तुम ...
कि ब्रह्न्नलाएं तो कभी की
मर चुकी है ...
-३-

काल के
उस खण्ड में
तुम्हारी आवाज की बुलंदी
एक अदद जिंदा फाँस थी
गड़ती-चुभती करक ...
उस पुरुष का अहम था 
जिसे लोहे की
जंगही नुकीली सुई से
कुरेद कर निकालना ...
बेहद जरूरी था उसके लिए कि
जीवन पृष्ठ की लहर पर
तनी हुई ग्रीवा
और उठे हुए शीर्ष की
सारी मुखरताओं में ठूंस दिया जाए
कुछ बेहद जड़ ...
बेहद जरूरी था उसके लिए
मुखरताओं के खमों का
दम निकालना ...
और उनकी दुमो का
पालतू कुत्तों की तरह
उसके आगे -पीछे रिरियाना
निहायतन जरूरी था
एक पुरुषत्व के नपुंसक
सिकंदरी घाव का
भरपूर सहलाया जाना ....
-४ -

चार दशकों  में बस
तीन ही बरस तो हैं  कम ...
सैतीस बरसों  में
कितने दिन काटे गये हैं
कोई भी गिन सकता है
वक़्त और अंतरालों  की
दुनियावी घड़ियाँ
पर गणितीय मानकों के गणनांको से परे ...
लंबी बेहद लंबी
रंगहीन खनकहीन
सूनी सफ़ेद वक्तों की हैं  ये
विधवा बिछावनें,
उस पर सैतीस वर्षों से पड़े
(
हाँ पड़े ही तो )
उस एक निष्चेट अचल चेहरे का
अखंड पाठ
बेहद गहरा है ...
मेरा सारा पढ़ा लिखा पन
दहशतों के निवाले निगलता है
शून्यताओं के बीहड़ अनंत में
खारे समंदर की लहरें भी
सहम कर ,
हाँ सहम कर ही तो
सूखे कोने थाम कर बैठी है
उसकी आँखों के
पूर्वांचल में
सूरज को
उगने की मनाही है
उसकी पलकों की
जाग्रत नग्नता में
जबरन उतारे गये हैं
रातों के स्थाई
उतार और चढ़ाव
सवाल और जवाब भी
कोई मुद्दे है क्या -
गूँगी दुनियाँ के उस छोर पर
जहाँ हलक में
ठूँस दी गई है जंजीरें
निर्ममता की सारी सीमाओं से परे ,तोड़ कर
खींच ली गई हों
शब्दचापों  की देह की
सारी साँसे ...
एक ही वार में
तहस-नहस कर
काट डाली गई हों
संवेगो की सारी जड़ें ...
जमा कर दफना दी गई हों
जैसे दक्षिणी ध्रुव के
किसी बेपनाह ठन्डे
गहरे अँधेरे टुकड़े में ...
-५-

किसी कृष्ण विवर में
सोख ली गई है
एक हरे-भरे खिले जीवन की
प्राण वायु की उदात्त ऊर्जाएँ
अंध चक्र आँधियों के भँवर ने
लील ही तो डाली है
चाँद तोडती
अपनी बाहों में तारे टाँकती
आसमान ताकती
युवा स्वप्नों की
बल खाती अमर बेल ,
एक सपाट सूने भाव शून्य
आयत पर रखी
अलटायी-पलटाई
उठाई-धरी जाती है
शय्या घावों और
देखभाल के नाम पर ...
कहते है कि
वो बस अब 'सब्जी' भर है
"
सब्जी भर है" ...
वक़्त की बही के शमशान में
सत्ताओं के निर्लज्ज
अघोर अभिलेखागार में
पंजीकृत है वो
अपने एक स्त्री भर होने के
अपराध के नाम ...
-६-

क्यों जीवित है वह ...
क्या महसूस करती है वह ...
क्या है ...
जो थाम कर रखता है
सैतीस लंबे वर्षों से
उसकी साँसों की
एक-एक
कड़ी दर कड़ी ........
तो सुनो ....
सूनेपन के हाशिए पर पड़ी
अंधी और भूखी-प्यासी
जिंदगियां भी
दर्ज कराती हैं
एक ना एक दिन
अपने जमे हुए अस्तित्व के समूचे प्राण
हाँ एक दिन किसी रोज
चुपचाप उठ कर हाशिओं से
चली आती है
वक्तव्य पृष्ठों के
बिल्कुल बीचोंबीच में
और तुम्हारे बर्बर नपुंसक साम्राज्य में
जबरन अपनी उपस्थिति की जिद्द का
शाश्वत पट्टा लिखा डालती है .......




~हेमा~

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1 comment:

  1. हर रचना समाज की कठोरता बयान कर रही है ... बहुत ही प्रभावी ... शब्दों का रोष आह्वान है ... सार्थक चिंतन है ...

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