Monday, August 26, 2013

इसका कहीं अंत है कोई ...

लानत है इस देश की कानून व्यवस्था पर ...

अब कौन बचता है जिसकी ओर देखा जा सके ... स्त्रियों और बच्चियों की रक्षा और संरक्षण हेतु ...

इस निर-आशा के नाटक के परदे का कोई गिरावनहार है ही नही ... क्या करे किस पर भरोसा करे ...
वैसे ही चारों ओर बेहद निराशा ही निराशा है ...

मात्र पार्क से घर के दरवाजे तक भी हजार निगाहें आपके अग्र और पार्श्व पर चिपक कर आपके घर के अंदर तक घुस आती है ...

पीछे से गूंजती हुई हँसी,फिकरे,फुसफुसाहटे, दबंगई से किये इशारे और नोच-खसोट सदियों से पीछा कर रही है ...

इसका कहीं अंत है कोई ...

सामान्य जीवन मिलेगा कभी, किसी तरह ...

कैसे उम्मीद बनाये रखे और किस पर ...

भेजिए समन और मांगिये अपराधियों से गिरफ्तार हो जाने की भीख ...

भिखारी व्यवस्थाओं के कटोरे में डाल दीजिये अपना हक और स्वाभिमान ...

देखते रहिये सार्वजानिक पटल पर निरंतर घटित किये जाते बलात्कार ...

जहाँ न्याय-व्यवस्था ऐसी रीढ़विहीनता में उतर जाए वहाँ जनता विकल्पहीन ही है ...
 — feeling angry.

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